भारत को One Nation One Police की क्या आवश्यकता है?
एक राष्ट्र, एक पुलिस एक ऐसा सुधार है जो लंबे समय से लंबित है।राज्य सरकारों ने पुलिस अधिनियम पारित किए हैं जो पुलिस सुधारों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ हैं। केंद्र भी एक मॉडल अधिनियम बनाने में विफल रहा है।
भारत सरकार हाल ही में "एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड", "एक राष्ट्र, एक रजिस्ट्री", "एक राष्ट्र, एक गैस ग्रिड" और यहां तक कि "एक राष्ट्र, एक चुनाव" की बात कर रही है। ये विचार प्रशंसनीय हैं और देश भर में विभिन्न सुविधाओं और नेटवर्क में एक एकीकृत योजना में योगदान देंगे। देश के विभिन्न क्षेत्रों में एक ही सुविधा के लिए अलग-अलग नियम काफी हैरान करने वाले हो सकते हैं। हालाँकि, एकरूपता के प्रयास में स्थानीय कारकों और विशेष विशेषताओं का संज्ञान लिया जाना चाहिए। जब तक क्षेत्रीय विशेषताओं को बनाए रखा जाता है और मान्यता दी जाती है, वही प्रणाली - इसकी व्यापक रूपरेखा में - स्वागत योग्य है।
हालाँकि, पुलिस मामलों में, आज हम एक ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं जहाँ हर राज्य एक अलग पुलिस अधिनियम बना रहा है। इन अधिनियमों को कथित तौर पर 22 सितंबर, 2006 को दिए गए पुलिस सुधारों पर उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुपालन में पारित किया जा रहा है। हालांकि, इन अधिनियमों के विश्लेषण से पता चलता है कि इन कानूनों के पीछे का उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था को विधायी कवर देना है और इस तरह कानून को दरकिनार करना है।
न्यायिक निर्देशों का कार्यान्वयन
अठारह राज्य पहले ही अधिनियम पारित कर चुके हैं। हम "एक राष्ट्र, कई पुलिस अधिनियम" की प्रक्रिया में हैं। यह द्विभाजन क्यों? केंद्र पूरे देश के लिए एक ही पुलिस अधिनियम के प्रति उदासीन क्यों रहा है?
अधिनियम का उद्देश्य क्या था?
विभिन्न राज्य 22 सितंबर, 2006 को उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये पुलिस सुधारों पर दिये गए निर्देशों के अनुपालन में पुलिस अधिनियम पारित कर रहे हैं।
हालाँकि, इन अधिनियमों के विश्लेषण से पता चलता है कि इनके पीछे का उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था को विधायी सुरक्षा प्रदान करके न्यायिक निर्देशों के कार्यान्वयन को रोकना है।
उल्लेखनीय है कि 18 राज्य पहले ही पुलिस अधिनियम पारित कर चुके हैं। वर्तमान में देश "एक राष्ट्र, कई पुलिस अधिनियम" के चरण में हैं।
उच्चतम न्यायालय के निर्देश
शीर्ष न्यायालय ने वर्ष 2006 के "प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ" मामले में पुलिस सुधार के लिये 7 निर्देश दिये थे-
- एक राज्य सुरक्षा आयोग का गठन करना।
- डी.जी.पी. का दो साल का कार्यकाल निश्चित करना।
- एस.पी. और एस.एच.ओ. के लिये दो साल का कार्यकाल निश्चित करना।
- एक अलग जाँच प्राधिकरण और कानून व्यवस्था।
- पुलिस संस्थान बोर्ड को स्थापित करना।
- राज्य और ज़िला स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकरण को स्थापित करना।
- केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की स्थापना करना।
उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के बाद की प्रक्रिया
पुलिस सुधारों पर शीर्ष न्यायालय के निर्देशों के तुरंत बाद, पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की अध्यक्षता में गृह मंत्रालय की पुलिस अधिनियम मसौदा समिति ने 'मॉडल पुलिस अधिनियम, 2006' प्रस्तुत किया।
भारत सरकार को इस मॉडल पुलिस अधिनियम के आधार पर ऐसे परिवर्तनों के साथ एक कानून बनाना चाहिये था, जो उसे आवश्यक लगें और राज्यों को इसे आवश्यक परिवर्तनों के साथ अपनाना चाहिये था।
इस मॉडल अधिनियम से पूरे देश में एक समान पुलिस ढाँचा सुनिश्चित होता। परंतु ऐसा नहीं हुआ और केंद्र सरकार "मॉडल पुलिस एक्ट" पारित करने से बचती रही।
कई राज्यों ने, किसी केंद्रीय मार्गदर्शन या निर्देश के अभाव में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का खुले तौर पर उल्लंघन करते हुए अपने पृथक पुलिस अधिनियम पारित किये।
इन राज्यों के खिलाफ एक अवमानना याचिका दायर की गई, क्योंकि इनके द्वारा बनाए गए कानून "प्रकाश सिंह मामले में न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या की संवैधानिक गारंटी के अनुसार राज्य द्वारा संतुष्ट करने के लिये बुनियादी न्यूनतम आवश्यकताओं का उल्लंघन करते हैं।"
पुलिस सुधारों के संदर्भ में अपने निर्देशों का पालन न करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने अकथनीय कारणों से किसी भी राज्य को अवमानना नोटिस जारी नहीं किया है।
संवैधानिक प्रावधान
केंद्र सरकार की रणनीति
केंद्र सरकार कम-से-कम केंद्रशासित प्रदेशों के लिये कानून बनाकर उन राज्यों पर उस कानूनको पारित करने का दबाब बना सकती थी, जहाँ उसके दल की सरकार सत्ता में थी। इस प्रकार, 10 से 12 राज्यों में कुछ एकरूपता हासिल की जा सकती थी।
दुर्भाग्य से, न तो केंद्रीय नेतृत्व और न ही राज्य के क्षेत्रीय दलों ने इस तरह की कोई मंशा प्रदर्शित की और न ही आवश्यक दूरदृष्टि दिखाई।
पुलिस अधिनियम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1861 में बनाया गया पुलिस अधिनियम लगभग पूरे भारत में लागू हुआ। औपनिवेशिक सरकार का विचार था कि "पूरे भारत में पुलिस सेवा, मशीनरी और काम की शर्तें काफी समान होनी चाहिए"। 1902 में लॉर्ड कर्जन द्वारा नियुक्त पुलिस आयोग ने पाया कि 1861 का अधिनियम V मद्रास और बॉम्बे प्रांतों में लागू नहीं था - इसलिए, इसने सिफारिश की कि अधिनियम को इन प्रांतों में भी लागू किया जाए। समय के साथ, राज्यों ने अपने स्वयं के पुलिस विनियम/नियमावली पारित की, लेकिन ये अनिवार्य रूप से केंद्रीय कानून के ढांचे के भीतर थे। यह एक वीरतापूर्ण विचार है, लेकिन अंग्रेजों ने इस मामले में अधिक दूरदर्शिता और दूरदर्शिता दिखाई।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी पुलिस सुधारों में एक बड़ी बाधा है।
- पुलिस संगठन में संवेदनशील कार्य संस्कृति का अभाव है।
- राजनेताओं-अपराधियों-पुलिस की मज़बूत साठगाँठ।
- श्रमशक्ति की कमी।
- आधुनिक तकनीक का अभाव।
- सूचनाओं से संबंधित जानकारी के संग्रहण हेतु एक एकीकृत केंद्रीय व्यवस्था का अभाव।
- पुलिस के पास आधुनिक हथियारों और वाहनों की कमी।
- बढ़ता भ्रष्टाचार।
- पेशेवर कार्यप्रणाली का अभाव।
आगे की राह
सबसे अच्छा विकल्प यह होगा कि केंद्र और राज्य सरकारें सहकारी संघवाद की भावना से एक-दूसरे के क्षेत्र का सम्मान करें। यदि ऐसा नहीं होता है, तो शायद संविधान की सातवीं अनुसूची में शक्तियों के वितरण पर नए सिरे से विचार करना आवश्यक होगा।
निष्कर्ष:
देश में प्रत्येक बड़ी घटना के बाद पुलिस सुधारों के लिये आयोग और समितियाँ गठित की जाती हैं, परंतु इन आयोग और समितियों की अनुशंसाएँ अभिलेखागार तक ही सीमित रहती हैं।
हालाँकि, कुछ स्वंतत्र और निष्पक्ष विचार रखने वाले व्यक्ति या संस्थाओं द्वारा समय-समय पर पुलिस सुधार की मांग विभिन्न मीडिया माध्यमों के ज़रिये उठाई जाती है।
अतः पुलिस व्यवस्था के संदर्भ में पूरे देश के लिये केंद्र सरकार को एक ही पुलिस अधिनियम लेकर आना चाहिये, जिससे पुलिस व्यवस्था में एकरूपता स्थापित की जा सके।

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