क्या United Kingdom टूट रहा है?
यूनाइटेड किंगडम (यूके) अथवा ग्रेट ब्रिटेन या इंग्लैंड, हम भारतीयों के लिए तो ये सब उसी एक देश के नाम हैं जिसने पिछली दो शताब्दियों में भारत सहित चौथाई पृथ्वी पर शासन किया। पृथ्वी की जनसंख्या के पांचवें हिस्से पर इसकी हुकूमत थी, परन्तु इन अलग-अलग नामों के पीछे सन्दर्भ भिन्न हैं। ग्रेट ब्रिटेन तीन राष्ट्रों इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड के एकीकरण से बने राष्ट्र का नाम था। सन् 1801 में आयरलैंड भी इसमें शामिल हो गया। तब से इसका नाम ग्रेट ब्रिटेन से बदलकर यूनाइटेड किंगडम रख दिया गया था।
By: Arvind Kumar Pandey
इस तरह यूनाइटेड किंगडम चार राष्ट्रों का एक समूह है। सन् 1921 में आयरलैंड का मुख्य भाग स्वतन्त्र हो गया और यूनाइटेड किंगडम के पास केवल आयरलैंड का उत्तरी भाग बचा। यद्यपि यूनाइटेड किंगडम अपने आप में एक सम्प्रभु राष्ट्र है किन्तु यह राष्ट्र प्रांतों में विभाजित न होकर स्व-शासित राष्ट्रों में विभाजित है। यदि आज की राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करें तो पाएंगें कि इस महान राष्ट्र में अब महान नाम का कुछ नहीं बचा है।
कहानी शुरू होती है यूरोपीय कमीशन के चुनावों को लेकर। (यूरोपीय संघ यूके सहित 28 यूरोपीय राष्ट्रों का संघ है)। यूरोपीय कमीशन में अभी तक यूके का दबदबा था तथा अध्यक्ष उसकी सहमति से ही बनाया जाता था। धीरे-धीरे यूरोपीय संसद का आधार मज़बूत हुआ और समर्थन भी व्यापक हुआ जिससे किसी एक राष्ट्र का प्रभाव सीमित होने लगा।
इस बार यूरोपीय कमीशन के महत्वपूर्ण अध्यक्ष पद के लिए यूरोपीय संसद ने लक्समबर्ग के पूर्व प्रधानमंत्री जीन क्लॉउड जंकर की उम्मीदवारी को अनुमोदित किया। इस अनुमोदन को लेकर यूके के प्रधानमंत्री डेविड केमरून को घोर आपत्ति थी। उन्होंने इस नियुक्ति को अवरुद्ध करने के सारे प्रयास किए। केमरून यूरोपीय कमीशन को एक शक्तिशाली देशों की अनुकंपा से चलने वाली संस्था के रूप में देखना चाहते हैं वहीं जंकर इस संस्था को एक सशक्त सत्ता के रूप में स्थापित कर सदस्य राष्ट्रों के अधिकारों को धीरे-धीरे कम करना चाहते हैं।
यूके को यह स्थिति मंज़ूर नहीं अतः जंकर की नियुक्ति को रोकने के लिए उन्होंने अपनी सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी। इसके बावजूद जंकर चुन लिए गए। 26 और 27 जून को यूरोपीय संघ के शिखर सम्मेलन में जंकर को 26 मतों से समर्थन मिला वहीं विरोध में मात्र दो मत पड़े। एक मत था यूके का तथा उसका साथ दिया हंगरी ने। अर्थात 2 के मुकाबले 26 मतों से यूके की हार हुई। जर्मनी की एंजेला मार्केल के साथ अच्छे सम्बन्ध होने के बावजूद भी वे डेविड कैमरून के बचाव में नहीं उतरीं।
यूके जो अभी तक अपने आप को यूरोपीय संघ का सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ समझता था, इस शर्मनाक हार के बाद वह यूरोपीय संघ में अब अपने भविष्य को लेकर चिंतित है। स्थिति यह है कि यूरोपीय संघ अब उसे अपने हितों के विरुद्ध काम करते हुए दिखता है और यही कारण है कि यूके में यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़ने की बात उठने लगी है।
केमरून अपनी इस हार से अंतराष्ट्रीय संचार माध्यमों में हंसी का पात्र भी बने। उन्होंने ने अपनी एक पत्रकार वार्ता में फिर से इस नियुक्ति पर अपनी नाखुशी जाहिर की और कहा कि यूरोपियन यूनियन के इस शक्तिशाली पद पर नियुक्ति सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्रप्रमुखों की सहमति से होना चाहिए न कि संसद द्वारा मनोनीत।
जाहिर है यूके, यूरोप में अपनी साख तो खो ही चुका है, घर के अंदर की स्थिति तो और भी अपयशकारी है। स्कॉटलैंड के स्कॉटिश नागरिक अब इंग्लैंड की मिथ्याभिमानी प्रवृत्ति के कारण उसके साथ नहीं रहना चाहते। उन्हें स्वतन्त्र स्कॉटलैंड चाहिए। अब से दस हफ्ते बाद 18 सितम्बर को जनमत संग्रह होने वाला है जिसमे स्कॉटिश लोग निर्णय लेंगें कि वे यूके का भाग बने रहना चाहते हैं या नहीं।
जरा सोचिए, क्या होगा यदि स्कॉटिश लोगों ने स्वतंत्रता को पसंद किया? तब तो वेल्स और उत्तरी आयरलैंड भी उसी राह पर निकल जाएंगे और तब बचेगा अकेला इंग्लैंड। जो बंद मुट्ठी लाख की थी अब खुल जाने पर खाक की दिखाई पड़ने लगी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि विघटन की कगार पर खड़े यूके के नेताओं के माथे पर कोई शिकन नहीं है। जो विघटन के पक्षधर हैं वे पूरी तैयारी और जोश के साथ अपना पक्ष जनता के सामने रख रहे हैं किन्तु एकता की बातें कोई राजनेता नहीं कर रहा है।
कैसी विडम्बना है कि 'बांटों और राज करो' की नीति पर चलते हुए भारत सहित कई उपनिवेश राष्ट्रों को विभाजित करने वाला यह राष्ट्र कालचक्र के पहिए में दबकर आज स्वयं विभाजन की कगार पर खड़ा है। अंग्रेज़ कौम अपने स्वर्णिम इतिहास पर गर्व करने के लिए जानी जाती है। इतिहास पर गर्व करना अच्छी बात है किन्तु इतिहास के पन्नों से बाहर न निकल पाने की दशा में आप अपने वर्तमान को आहत करते हैं।
ऐसा ही कुछ इंग्लैंड की सरकार कर रही है। उन्हें यह क्यों नहीं समझ में आता कि शासक और शासित होने की बातें अब पिछली सदियों के गर्भ में समा चुकी हैं। आज का युग, समानता का युग है जहां हर देश और हर नागरिक को समान अधिकार हैं। विश्व को शिक्षा देने वाला इंग्लैंड स्वयं यह बात जितनी जल्दी समझ ले उसके भविष्य के लिए उतना ही अच्छा होगा अन्यथा कभी दुनिया पर शासन करने वाला यह देश अतीत की स्मृतियों के नशे में अपने वर्तमान को लिखने लायक नहीं छोड़ेगा।
यूरोपीय देशों के बीच उसकी भद तो पिट ही चुकी है अब घर भी टूटने की कगार पर है। सचमुच संसार का इतिहास ऐसी रोचक विडंबनाओं से भरा पड़ा है और इनमें से उभरने वाला यथार्थ किसी भी कल्पना की उड़ान में लिखे गए उपन्यास से कहीं अधिक रोचक होता है।
कहानी शुरू होती है यूरोपीय कमीशन के चुनावों को लेकर। (यूरोपीय संघ यूके सहित 28 यूरोपीय राष्ट्रों का संघ है)। यूरोपीय कमीशन में अभी तक यूके का दबदबा था तथा अध्यक्ष उसकी सहमति से ही बनाया जाता था। धीरे-धीरे यूरोपीय संसद का आधार मज़बूत हुआ और समर्थन भी व्यापक हुआ जिससे किसी एक राष्ट्र का प्रभाव सीमित होने लगा।
इस बार यूरोपीय कमीशन के महत्वपूर्ण अध्यक्ष पद के लिए यूरोपीय संसद ने लक्समबर्ग के पूर्व प्रधानमंत्री जीन क्लॉउड जंकर की उम्मीदवारी को अनुमोदित किया। इस अनुमोदन को लेकर यूके के प्रधानमंत्री डेविड केमरून को घोर आपत्ति थी। उन्होंने इस नियुक्ति को अवरुद्ध करने के सारे प्रयास किए। केमरून यूरोपीय कमीशन को एक शक्तिशाली देशों की अनुकंपा से चलने वाली संस्था के रूप में देखना चाहते हैं वहीं जंकर इस संस्था को एक सशक्त सत्ता के रूप में स्थापित कर सदस्य राष्ट्रों के अधिकारों को धीरे-धीरे कम करना चाहते हैं।
यूके को यह स्थिति मंज़ूर नहीं अतः जंकर की नियुक्ति को रोकने के लिए उन्होंने अपनी सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी। इसके बावजूद जंकर चुन लिए गए। 26 और 27 जून को यूरोपीय संघ के शिखर सम्मेलन में जंकर को 26 मतों से समर्थन मिला वहीं विरोध में मात्र दो मत पड़े। एक मत था यूके का तथा उसका साथ दिया हंगरी ने। अर्थात 2 के मुकाबले 26 मतों से यूके की हार हुई। जर्मनी की एंजेला मार्केल के साथ अच्छे सम्बन्ध होने के बावजूद भी वे डेविड कैमरून के बचाव में नहीं उतरीं।
यूके जो अभी तक अपने आप को यूरोपीय संघ का सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ समझता था, इस शर्मनाक हार के बाद वह यूरोपीय संघ में अब अपने भविष्य को लेकर चिंतित है। स्थिति यह है कि यूरोपीय संघ अब उसे अपने हितों के विरुद्ध काम करते हुए दिखता है और यही कारण है कि यूके में यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़ने की बात उठने लगी है।
केमरून अपनी इस हार से अंतराष्ट्रीय संचार माध्यमों में हंसी का पात्र भी बने। उन्होंने ने अपनी एक पत्रकार वार्ता में फिर से इस नियुक्ति पर अपनी नाखुशी जाहिर की और कहा कि यूरोपियन यूनियन के इस शक्तिशाली पद पर नियुक्ति सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्रप्रमुखों की सहमति से होना चाहिए न कि संसद द्वारा मनोनीत।
जाहिर है यूके, यूरोप में अपनी साख तो खो ही चुका है, घर के अंदर की स्थिति तो और भी अपयशकारी है। स्कॉटलैंड के स्कॉटिश नागरिक अब इंग्लैंड की मिथ्याभिमानी प्रवृत्ति के कारण उसके साथ नहीं रहना चाहते। उन्हें स्वतन्त्र स्कॉटलैंड चाहिए। अब से दस हफ्ते बाद 18 सितम्बर को जनमत संग्रह होने वाला है जिसमे स्कॉटिश लोग निर्णय लेंगें कि वे यूके का भाग बने रहना चाहते हैं या नहीं।
जरा सोचिए, क्या होगा यदि स्कॉटिश लोगों ने स्वतंत्रता को पसंद किया? तब तो वेल्स और उत्तरी आयरलैंड भी उसी राह पर निकल जाएंगे और तब बचेगा अकेला इंग्लैंड। जो बंद मुट्ठी लाख की थी अब खुल जाने पर खाक की दिखाई पड़ने लगी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि विघटन की कगार पर खड़े यूके के नेताओं के माथे पर कोई शिकन नहीं है। जो विघटन के पक्षधर हैं वे पूरी तैयारी और जोश के साथ अपना पक्ष जनता के सामने रख रहे हैं किन्तु एकता की बातें कोई राजनेता नहीं कर रहा है।
कैसी विडम्बना है कि 'बांटों और राज करो' की नीति पर चलते हुए भारत सहित कई उपनिवेश राष्ट्रों को विभाजित करने वाला यह राष्ट्र कालचक्र के पहिए में दबकर आज स्वयं विभाजन की कगार पर खड़ा है। अंग्रेज़ कौम अपने स्वर्णिम इतिहास पर गर्व करने के लिए जानी जाती है। इतिहास पर गर्व करना अच्छी बात है किन्तु इतिहास के पन्नों से बाहर न निकल पाने की दशा में आप अपने वर्तमान को आहत करते हैं।
ऐसा ही कुछ इंग्लैंड की सरकार कर रही है। उन्हें यह क्यों नहीं समझ में आता कि शासक और शासित होने की बातें अब पिछली सदियों के गर्भ में समा चुकी हैं। आज का युग, समानता का युग है जहां हर देश और हर नागरिक को समान अधिकार हैं। विश्व को शिक्षा देने वाला इंग्लैंड स्वयं यह बात जितनी जल्दी समझ ले उसके भविष्य के लिए उतना ही अच्छा होगा अन्यथा कभी दुनिया पर शासन करने वाला यह देश अतीत की स्मृतियों के नशे में अपने वर्तमान को लिखने लायक नहीं छोड़ेगा।
यूरोपीय देशों के बीच उसकी भद तो पिट ही चुकी है अब घर भी टूटने की कगार पर है। सचमुच संसार का इतिहास ऐसी रोचक विडंबनाओं से भरा पड़ा है और इनमें से उभरने वाला यथार्थ किसी भी कल्पना की उड़ान में लिखे गए उपन्यास से कहीं अधिक रोचक होता है।
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